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यजुर्वेद :

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‘यजुष’ शब्द का अर्थ है- ‘यज्ञ’। यर्जुवेद मूलतः कर्मकाण्ड ग्रन्थ है। इसकी रचना कुरुक्षेत्र में मानी जाती है। यजुर्वेद में आर्यो की धार्मिक एवं सामाजिक जीवन की झांकी मिलती है। इस ग्रन्थ से पता चलता है कि आर्य ‘सप्त सैंधव’ से आगे बढ़ गए थे और वे प्राकृतिक पूजा के प्रति उदासीन होने लगे थे। यर्जुवेद के मंत्रों का उच्चारण ‘अध्वुर्य’ नामक पुरोहित करता था। इस वेद में अनेक प्रकार के यज्ञों को सम्पन्न करने की विधियों का उल्लेख है। यह गद्य तथा पद्य दोनों में लिखा गया है। गद्य को ‘यजुष’ कहा गया है। यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय ईशावास्य उपनिषयद है, जिसका सम्बन्ध आध्यात्मिक चिन्तन से है। उपनिषदों में यह लघु उपनिषद आदिम माना जाता है क्योंकि इसे छोड़कर कोई भी अन्य उपनिषद संहिता का भाग नहीं है। यजुर्वेद के दो मुख्य भाग है-

1.शुक्ल यजुर्वेद

2.कृष्ण यजुर्वेद

शुक्ल यजुर्वेद

विषय सूची

[छिपाएं]1 शुक्ल यजुर्वेद

2 कृष्ण यजुर्वेद

3 यजुर्वेद की अन्य विशेषताएँ

4 संबंधित लेख

इसमें केवल ‘दर्शपौर्मासादि’ अनुष्ठानों के लिए आवश्यक मंत्रों का संकलन है। इसकी मुख्य शाखायें है-

1.माध्यन्दिन

2.काण्व

इसकी संहिताओं को ‘वाजसनेय’ भी कहा गया है क्योंकि ‘वाजसनि’ के पुत्र याज्ञवल्क्य वाजसनेय इसके दृष्टा थे। इसमें कुल 40 अध्याय हैं।

कृष्ण यजुर्वेद

इसमें मंत्रों के साथ-साथ ‘तन्त्रियोजक ब्राह्मणों’ का भी सम्मिश्रण है। वास्तव में मंत्र तथा ब्राह्मण का एकत्र मिश्रण ही ‘कृष्ण यजुः’ के कृष्णत्त्व का कारण है तथा मंत्रों का विशुद्ध एवं अमिश्रित रूप ही ‘शुक्त यजुष्’ के शुक्लत्व का कारण है। इसकी मुख्य शाखायें हैं-

1.तैत्तिरीय,

2.मैत्रायणी,

3.कठ और

4.कपिष्ठल

तैत्तरीय संहिता (कृष्ण यजुर्वेद की शाखा) को ‘आपस्तम्ब संहिता’ भी कहते हैं।

महर्षि पंतजलि द्वारा उल्लिखित यजुर्वेद की 101 शाखाओं में इस समय केवल उपरोक्त पाँच वाजसनेय, तैत्तिरीय, कठ, कपिष्ठल और मैत्रायणी ही उपलब्ध हैं।

यजुर्वेद से उत्तरवैदिक युग की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन की जानकारी मिलती हैं।

इन दोनों शाखाओं में अंतर यह है कि शुक्ल यजुर्वेद पद्य (संहिताओं) को विवेचनात्मक सामग्री (ब्राह्मण) से अलग करता है, जबकि कृष्ण यजुर्वेद में दोनों ही उपस्थित हैं।

यजुर्वेद में वैदिक अनुष्ठान की प्रकृति पर विस्तृत चिंतन है और इसमें यज्ञ संपन्न कराने वाले प्राथमिक ब्राह्मण व आहुति देने के दौरान प्रयुक्त मंत्रों पर गीति पुस्तिका भी शामिल है। इस प्रकार यजुर्वेद यज्ञों के आधारभूत तत्त्वों से सर्वाधिक निकटता रखने वाला वेद है।

यजुर्वेद संहिताएँ संभवतः अंतिम रचित संहिताएँ थीं, जो ई. पू. दूसरी सहस्त्राब्दी के अंत से लेकर पहली सहस्त्राब्दी की आरंभिक शताब्दियों के बीच की हैं।

यजुर्वेद की अन्य विशेषताएँ

यजुर्वेद गद्यात्मक हैं।

यज्ञ में कहे जाने वाले गद्यात्मक मन्त्रों को ‘यजुस’ कहा जाता है।

यजुर्वेद के पद्यात्मक मन्त्र ऋग्वेद या अथर्ववेद से लिये गये है।

इनमें स्वतन्त्र पद्यात्मक मन्त्र बहुत कम हैं।

यजुर्वेद में यज्ञों और हवनों के नियम और विधान हैं।

यह ग्रन्थ कर्मकाण्ड प्रधान है।

यदि ऋग्वेद की रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र में हुई थी तो यजुर्वेद की रचना कुरुक्षेत्र के प्रदेश में हुई थी।

इस ग्रन्थ से आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है।

वर्ण-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम की झाँकी भी इसमें है।

यजुर्वेद में यज्ञों और कर्मकाण्ड का प्रधान है।

निम्नलिखित उपनिषद् भी यजुर्वेद से सम्बद्ध हैं:-

श्वेताश्वतर

बृहदारण्यक

ईश

प्रश्न

मुण्डक

माण्डूक्य