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भोजनभट्ट जब रह गए भूखे :

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हमारी कंपनी के मैनेजर लुभायाराम राय यों तो बहुत डरपोक और संकोची आदमी थे, मगर खाने के मामले में और खासकर दूसरे की जेब के पैसे खर्च कराकर खाने के मामले में न उन्हें पेट फटने का डर सताता था, न संकोच होता था। इसीलिए हम उन्हें भोजनभट्ट कहते थे।

जब भी हम लंच करने रेस्तराँ में जाते भोजनभट्ट भी हमारे पीछे-पीछे आ पहुँचते और कई चीजों का ऑर्डर देकर हमारे पास बैठ जाते। फिर हमसे पहले सभी चीजें चट करके मुँह साफ करते कहते, ‘‘मैं अभी आ रहा हूँ’’ पर लौटकर कभी न आते। इस तरह उनके भोजन के पैसे भी हमें चुकाने पड़ते।

एक बार जब भोजनभट्ट जी ने हम तीन साथियों को अपने घर भोजन का निमंत्रण दिया तो हमें आश्चर्य हुआ। हम अगली-पिछली सारी कसर पूरी करने का इरादा करके अगले दिन पहुँच गए भोजनभट्ट जी के घर। उनके घर पर कीर्तन हो रहा था। करीब तीन घंटे बाद जब कीर्तन समाप्त हुआ तो भोजनभट्ट ने सबको प्रसाद बाँटा। उसके बाद एक-एक करके सभी लोग चले गए। हम तीनों इस इंतजार में बैठे रहे कि शायद मुहल्ले के लोगों के जाने के बाद भोजनभट्ट जी हमें भोजन कराएँगे। मगर करीब डेढ़ घंटा और बीत जाने का बाद भोजन आता न दीखा, तो हमारे एक साथी ने पूछ ही लिया कि भोजन कब मिलेगा। उसकी बात सुनकर भोजनभट्ट जी बोले, ‘‘भोजन कैसा भोजन ?’’

हमने उन्हें याद दिलाया कि उन्होंने ही हमें भोजन पर बुलाया था। भोजनभट्ट बजाय शर्मिंदा होने के तुरंत बोले, ‘‘नहीं भाई, तुम लोगों से सुनने में भूल हो गई है। हमने तो आपको भजन-कीर्तन पर बुलाया था। हम बंगाली लोग भजन को भोजन बोलते हैं भाई।’’

फिर थोड़ा ठहरकर वे बोले, ‘‘आज तो मैं आपको भोजन करा भी नहीं सकता, क्योंकि आज हमारे घर कीर्तन हुआ है सो घर में खाना नहीं बनेगा। सब उपवास रखेंगे। हाँ, अगर किसी को ज्यादा ही भूख लगेगी तो वह होटल में जाकर खा आएगा।’’

हमने कहा तो चलिए हमारी खातिर आप ही उपवास तोड़ दीजिए।’’

भोजनभट्ट जी ने यह सलाह तुरंत मान ली। होटल में पहुँचकर लंबा-चौड़ा ऑर्डर दिया। अभी हम लोग आधा पेट भी नहीं भर पाए थे कि वह अपने हिस्से का तमाम भोजन चट करके उठ खड़े हुए और हमेशा की तरह, ‘‘मैं अभी आता हूँ’’ कहते हुए यह जा और वह जा।

कहना न होगा, अपने साथ-साथ हमें उनके भोजन के भी पैसे चुकाने पड़े।

बस उसी समय हम तीनों ने उन्हें सबक सिखाने की ठान ली। अगले दिन हम तीनों भोजनभट्ट जी से अलग-अलग मिले और उन्हें इतवार की दोपहर अपने-अपने घरों में खाने का निमंत्रण दे दिया।

उन्होंने तीनों जगह खाना खाने की सहर्ष स्वीकृति दे दी।

उन्होंने बुधवार से ही अपने घर खाना छोड़ दिया था। इतवार को सुबह-सवेरे वह अपने घर से निकल पड़े। चलने से पहले अपने लड़कों को हिदायत दी, ‘‘देखो, मैं आज रमेश, सुरेश और दिनेश के घर भोजन करने जा रहा हूँ। तुम ठीक पाँच बजे साइकिल लेकर दिनेश के घर पहुँच जाना, क्योंकि ज्यादा खाने के कारण मैं चल नहीं सकूँगा।

भोजनभट्ट जी रमेश के घर पहुँचे।

उसने उन्हें बैठक में बिठाकर एक गिलास ठंडा पानी हाजिर किया।

भोजनभट्ट जी तो चार दिन से भूखे थे सो भूखे पेट में खाली पानी ने जाकर ऊधम मचाना शुरू कर दिया। भीतर रसोईघर से तवे पर कुछ तले जाने की आवाज आ रही थी। उसे सुन-सुनकर भोजनभट्ट प्रसन्न हो रहे थे और इंतजार में थे कि कब वे सब पकवान उनके सामने आयें। पर भीतर कुछ बन रहा होता तब तो आता। भीतर तो रमेश की पत्नी खाली गर्म तवे पर पानी के छीटे मार रही थी। अचानक वह आवाज आनी बंद हो गई। भोजनभट्ट जी सतर्क होकर बैठ गए। तभी रमेश की पत्नी ने आकर सूचना दी, ‘‘खाने का सब सामान कुत्ते ने जूठा कर दिया है। अब मैं बाजार से दूसरी सब्जियाँ वगैरह लेने जाती हूँ।’’

यह सुनकर भोजनभट्ट जी के तो होश ही उड़ गए। उन्हें तुरंत सुरेश की याद आई। वह उसी समय उसके घर चल पड़े।

सारे रास्ते वह रमेश और उसकी पत्नी को कोसते रहे। जैसे ही वह सुरेश की गली में मुड़े वह उनसे टकरा गया। वह बोला, ‘‘सर, मुझे सुबह रमेश ने बताया कि आज आपकी दावत उसके घर में है सो मैंने कार्यक्रम बदल दिया। अब मैं कहीं जा रहा हूँ। आपको भोजन कराने का मौका आज तो मेरे हाथ से निकल गया मगर, कोई बात नहीं, फिर कभी सही।’’ इतना कहकर वह तेजी से बस स्टॉप की तरफ दौड़ गया।

बेचारे भोजनभट्ट जी काफी देर तक भूखा पेट पकड़े सुरेश पर लानत-मलामत भेजते रहे फिर कुछ हिम्मत बटोरकर मेरे घर के लिए चल पड़े। मैं तो उनके इंतजार में बैठा ही था। तपाक से उन्हें घर ले आया। ज्योंही वह आराम से बैठे, मैंने कहा, ‘‘सर, यह तो बुरा हुआ कि आज ही सुरेश और रमेश ने भी आपको निमंत्रित किया। अब मैं आपके पेट के साथ तो ज्यादती कर नहीं सकता इसलिए…’’अभी मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि मेरी पत्नी दो कप चाय ले आई। चाय पीकर मैं उन्हें छत पर ले आया ताकि हवा का आनंद लिया जा सके।

छत पर पहुँचते ही भोजनभट्ट जी ने मरी हुई आवाज में कहा, ‘‘नहीं, मैंने उनके यहाँ भोजन नहीं किया। मैंने फैसला किया था कि खाना मैं तुम्हारे ही घर खाऊँगा।’’

तभी मेरी पत्नी छत पर आकर बोली, ‘‘देखिए मैं जरा अपनी माँ के घर तक जा रही हूँ शाम को देर से लौटूँगी।’’ और वह फौरन घर की चाभियाँ मेरे पास रखकर चली गई।

मैं ‘अरे सुनो तो…’’ चिल्लाता रहा पर उसने मुड़कर भी न देखा। इधर मैं भोजनभट्ट जी का हाल देखकर अवाक् रह गया। वह बेहोश होकर छत पर लुढ़क चुके थे।

शाम को उनका लड़का मेरे घर आया और भोजनभट्ट जी को उसी हालत में साइकिल पर लादकर ले गया। वह पूरे रास्ते बड़बड़ाता गया, ‘‘कहा था एक साथ तीन-तीन घरों में दावत मत खाना। पर किसी की सुनें तब न।’’

उसी दिन भोजनभट्ट जी ने मुफ्तखोरी से तौबा कर ली।